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स्थलमंडल किसे कहते है ? | What is a lithosphere?

 

स्थलमंडल (Lithosphere)


    स्थलमण्डल सम्पूर्णपृथ्वी के क्षेत्रफल का 29% है। पृथ्वी के अन्दर तीन मण्डल पाए जाते हैं। ऊपरी मण्डल को भूपर्पटी अथवा क्रस्ट कहा जाता है। इसकी मोटाई 30 से 100 किमी तक होती है। महाद्वीपों में इसकी मोटाई अधिक जबकि महासागरों में या तो क्रस्ट होती ही नहीं अगर होती है तो बहुत पतली होती है। क्रस्ट का ऊपरी भाग स्थलमण्डल का प्रतिनिधित्व करता है। जिन पदार्थों से क्रस्ट का निर्माण होता है वे जैव समुदाय के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। क्रस्ट का निर्माण मुख्यतः लोहा, ऑक्सीजन, सिलिकॉन, मैग्नीशियम, निकिल, गंधक, कैल्शियम तथा ऐलुमिनियम से होता है। क्रस्ट में एल्युमिनियम तथा सिलिका की मात्रा अधिक होती है। क्रस्ट के नीचे के दूसरे मण्डल को मैण्टिल कहा जाता है जिसकी निचली सीमा 2900 किमी से पृथ्वी के केन्द्र तक है।

चट्टान

  • पृथ्वी की सतह का निर्माण करने वाले पदार्थ चट्टानें या षैल कहलाते हैं।
  • बनावट की प्रक्रिया के आधार पर चट्टानों को तीन भागों में विभाजित किया जाता है।

  • आग्नेय चट्टान
  • ये चट्टानें भी चट्टानों में सबसे ज्यादा (95%) मिलती है।
  • इनका निर्माण ज्वालामुखी उद्गार के समय निकलने वाले लावा (Magma) के पृथ्वी के अंन्दर या बाहर ठंडा होकर जम जाने से होता है।
  • ये प्राथमिक मौलिक चट्टनें कहलाती है क्योंकि बाकी सभी चट्टानों का निर्माण इन्हीं से होता है।

  • उत्पत्ति के आधार पर ये तीन प्रकार की होती है-

    ग्रेनाइट:इन चट्टानों के निर्माण से मैग्मा धरातल के ऊपर न पहुँचकर अंदर ही जमकर ठोस रूप धारण कर लेता है जिसके ठंडा होने की प्रक्रिया बहुत धीमी होती है क्योंकि अन्दर का तापमान अधिक होता है और बनने वाले क्रिस्टल काफी बड़े होते हैं।

    बेसाल्ट:ये समुद्री सतह पर पाये जाते हैं।

    ज्वालामुखी:ज्वालामुखी विस्फोट के कारण मैग्मा के बाहर आकर जमने से चट्टानें बनती है।

    अवसादी चट्टान
  • ये प्राचीन चट्टानों के टुकड़ों जीव अवषेषों तथा खनिज के परतदार एवं संगठित जमाव से निर्मित होती है।
  • ये भूपष्ष्ठ का केवल 5 प्रतिषत होती है परन्तु भूपष्ष्ठ के 75 प्रतिषत भाग पर पै$ली रहती हैं।
  • इन्हें परतदार चट्टानों के नाम से भी जाना जाता है।
  • जिप्ससए चीका मिट्टीए चूने का पत्थरए कोयला (एन्थ्रेसाइट के अलावा), बालुका पत्थरए षैलए ग्रेवल आदि अवसादी चट्टानों के उदाहरण हैं
  • रूपान्तरित चट्टान
  • अवसादी एवं आग्नेय चट्टनों में ताप, दबाव और रासायनिक क्रियाओं आदि के कारण परिवर्तन हो जाता है। इससे जो चटट्नें बनती हैं वे रूपान्तरित या परिवर्तित चट्टानें कहलाती हैं।
  • पर्वत या पहाड़

    पर्वत या पहाड़ पृथ्वी पर प्राकृतिक रूप से ऊंचा उठा हुआ हिस्सा होता है. ये ज्यादातर आकस्मिक तरीके से उभरा होता है. पर्वत ज्यादातर एक लगातार समूह में होते हैं. उत्पत्ति के अनुसार पर्वत चार प्रकार के होते हैं:

    ब्लॉक पर्वत (Block mountain)- जब चट्टानों में स्थित भ्रंश के कारण मध्य भाग नीचे धंस जाता है और अगल-बगल के भाग ऊंचे उठे लगते हैं, तो वो ब्लॉक पर्वत कहलाते हैं. बीच में धंसे भाग को रिफ्ट घाटी कहते हैं. इन पर्वतों के शीर्ष समतल और किनारे तीव्र भ्रंश-कगारों से सीमित होते हैं. इस तरह ते पर्वत के उदाहरण हैं- वॉस्जेस (फ्रांस), ब्लैक फॉरेस्ट (जर्मनी), साल्ट रेंज (पाकिस्तान)

    अवशिष्ट पर्वत (Residual mountain)- ये पर्वत चट्टानों के अपरदन के फलस्वरुप निर्मित होते हैं. जैसे- विन्ध्याचल और सतपुड़ा, नीलगिरी, पारसनाथ, राजमहल की पहाड़ियां (भारत), सीयरा (स्पेन), गैसा और बूटे (अमेरिका)

    संचित पर्वत (Accumulated mountain)- भूपटल पर मिट्टी, बालू, कंकड़, पत्थर लावा के एक स्थान पर जमा होते रहने के कारण बनने वाला पर्वत संचित पर्वत कहलाता है. रेगिस्तान में बनने वाले बालू के स्तूप इसी श्रेणी में आते हैं.

    वलित पर्वत (Fold mountain)- ये पृथ्वी की आन्तरिक शक्तियों से धरातल की चट्टानों के मुड़ जाने से बनते हैं. ये लहरदार पर्वत होते हैं, जिनपर असंख्य अपनतियां और अभिनतियां होती हैं. जैसे- हिमालय, आल्पस यूराल, रॉकीज और एण्डीज.

    वलित पर्वतों के निर्माण का आधुनिक सिंद्धात प्लेट टेक्टॉनिक (Plate Tectonics) की संकल्पना पर आधारित है.

    जहां आज हिमालय पर्वत खड़ा है वहां किसी समय में टेथिस सागर नामक विशाल भू-अभिनति थी. दक्षिण पठार के उत्तर की ओर विस्थापन के कारण टेथिस सागर में बल पड़ गए और वह ऊपर उठ गया. इसी से संसार का सबसे ऊंचा पर्वत हिमालय का निर्माण हुआ.

    भारत का अरावली पर्वत विश्व के सबसे पुराने वलित पर्वतों में गिना जाता है. इसकी सबसे ऊंची चोटी माउण्ट आबू के पास गुरुशिखर है. इसकी समुद्रतल से ऊंचाई 1722 मीटर है. कुछ विद्वान अरावली पर्वतों को अवशिष्ट पर्वत का उदाहरण मानते हैं.

    पठार

    पठार धरातल का वह विशिष्ट स्थल रूप है, जो कि अपने आस-पास के स्थल से पर्याप्त ऊँचाई का तथा जिसका शीर्ष भाग चौड़ा और सपाट होता है। सामान्यतः पठार की ऊँचाई 300 से 500 फीट तक होती है।

    कुछ अधिक ऊँचाई वाले पठार हैं- 'तिब्बत का पठार' (16,000 फीट), 'बेलीविया का पठार' (12,000 फीट) तथा 'कोलम्बिया का पठार' (7,800 फीट)।

    पठार प्राय: निम्न प्रकार के होते हैं-

    अंतपर्वतीय पठार - पर्वतमालाओं के बीच में बने पठार। ऐसे पठार चारों ओर से घिरे रहते हैं। जैसे- तिब्बत का पठार, बोलीविया, पेरू इत्यादि के पठार।

    पर्वतपदीय पठार - पर्वत के तल और मैदान के बीच उठे समतल भाग।

    महाद्वीपीय पठार - जब पृथ्वी के भीतर जमा लैकोलिथ भू–पृष्ठ के अपरदन के कारण सतह पर उभर आते हैं, तब ऐसे पठार बनते हैं। ऐसे पठारों का निर्माण पटल विरूपणी बलों द्वारा धरातल के किसी विस्तृत भू-भाग के ऊपर उठ जाने से होता है। जैसे—दक्षिण का पठार, भारत के कैमूर, रांची तथा कर्नाटक के पठार।

    तटीय पठार - समुद्र के तटीय भाग में स्थित पठार।

    चलन क्रिया के फलस्वरूप निर्मित पठार, जैसे- राजगढ़ गुम्बद (भारत)।

    पीडमॉण्ट पठार - उच्च पर्वतों की तलहटी में स्थित पठारों को ‘पीडमॉण्ट’ पठार कहते हैं। जैसे-पीडमॉण्ट (सं. रा. अमेरिका), पेटागोनिया (दक्षिणी अमेरिका) आदि।

    कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य -
  • तिब्बत विश्व का सबसे ऊँचा पठार है, जो समुद्र तल से औसतन 16 हजार फीट ऊँचा है ।
  • तिब्बत का पठार क्षेत्र की दृष्टि से भी विश्व का सबसे बड़ा पठार है । इसका क्षेत्रफल 7.8 लाख वर्गमील तक है ।
  • जम्मू-कश्मीर में हिम नदियों के जमाव से छोटे-छोटे पठार बनते हैं । इन पठारों को मर्ग कहा जाता है । सोजमर्ग और गुलमर्ग ऐसे ही पठार हैं ।
  • गढ़वाल का पठार भी हिम नदी के निक्षेप से बना है ।
  • विश्व के सबसे ऊँचे पठार अन्तरपर्वतीय पठार हैं ।
  • पर्वतों की तलहटी पर स्थित पठार खड़ी पदीय पठार कहलाते हैं । इन पठारों के एक ओर ऊँचे पर्वत तो दूसरी ओर मैदान या समतल होते हैं । भारत का शिलाँग का पठार ऐसा ही पठार है।
  • गुम्बदाकार पठारों की रचना ज्वालामुखी प्रक्रिया से होती है । छोटा नागपुर के पठार की रचना ऐसे ही हुई है ।
  • समुद्र के तटों के साथ-साथ फैले पठार तटीय पठार कहलाते हैं । भारत का कोरोमण्डल तट तटीय पठार का अच्छा उदाहरण है ।
  • तिब्बत का पठार सपाट पठार है ।संयुक्त राज्य अमेरिका का कोलेरेडो पठार मरुस्थलीय पठार का उदाहरण है । इसे युवा पठार ;ल्वनदह च्समजमंनद्ध भी कहा जाता है ।
  • भारत में राँची का पठार जीर्ण या वृद्ध ;व्सक च्समजमंनद्ध पठार कहलाता है ।
  • जीर्ण या वृद्ध पठार की पहचान उस पर उपस्थित पत्थर ‘मेसा’ से होती है । वस्तुतः जब नष्ट हो रहे पठारों पर कहीं-कहीं कठोर चट्टान के टुकड़े टीले के रूप में बचे रह जाते है, तो उन्हें मेसा या बूटा कहा जाता है ।
  • जब वृद्ध पठार अकस्मात युवा अवस्था में आ जाते हैं, तो उन्हें ‘पुनर्युवनीत पठार’ कहा जाता है । राँची का ‘‘पार प्रदेश’’ ऐसा ही पठार है ।
  • मैदान

    मैदान 500 फ़ीट से कम ऊँचाई वाले भू-पृष्ठ के समतल भाग को कहा जाता है। मैदानों में ढाल प्राय: बिल्कुल नहीं होता है और इस प्रकार के क्षेत्रों में आकर नदियों के प्रवाह में भी कमी आ जाती है। धरातल पर मिलने वाले अपेक्षाकृत समतल और निम्न भू-भाग को मैदान कहा जाता है। इनका ढाल एकदम न्यून होता है।

    मैदान अनेक प्रकार के होते हैं, जैसे-

    अपरदनात्मक मैदान - ऐसे मैदानों का निर्माण अपक्षय तथा अपरदन की क्रियाओं के परिणामस्वरूप होता है। नदी, हिमानी, पवन जैसी शक्तियों के अपरदन से इस प्रकार के मैदान बनते हैं। जैसे उत्तरी कनाडा, उत्तरी यूरोप, पश्चिमी सर्बिया आदि। ये मैदान भी निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-

    लोएस मैदान - हवा द्वारा उड़ाकर लाई गई मिट्टी एवं बालू के कणों से निर्मित होता है।

    कार्स्ट मैदान - चूने पत्थर की चट्टानों के घुलने से निर्मित मैदान।

    समप्राय मैदान - समुद्र तल के निकट स्थित मैदान, जिनका निर्माण नदियों के अपरदन के फलस्वरूप होता है।

    ग्लेशियर मैदान - हिम के जमाव के कारण निर्मित दलदली मैदान, जहाँ पर केवल वन ही पाए जाते हैं।

    रेगिस्तानी मैदान - वर्षा के कारण बनी नदियों के बहने के फलस्वरूप इसका निर्माण होता है।

    निक्षेपात्मक मैदान - अपरदन के कारकों द्वारा धरातल के किसी भाग से अपरदित पदार्थों को परिवहित करके उन्हें दूसरे सथान पर निक्षेपित कर देने से एसे मैदानों की उत्पत्ति होती है। उदाहरण- गंगा-ब्रह्मपुत्र का मैदान (उत्तर भारत), ह्वांगो (चीन) आदि। नदी निक्षेप द्वारा बड़े–बड़े मैदानों का निर्माण होता है। इसमें गंगा, सतलुज, मिसी–सिपी एवं ह्वाग्हों के मैदान प्रमुख हैं। इस प्रकार के मैदानों में जलोढ़ का मैदान, डेल्टा का मैदान प्रमुख है।

    रचनात्मक मैदान- रचनात्मक मैदानों का निर्माण पटल विरुपणी बलों के परिणामसवरूप समुद्री भागों में निक्षेपित जमावों के ऊपर उठाने से होता है। जैसे कोरोमण्डल व उत्तरी सरकार (भारत)।

    भूकंप

    भूकम्प भूपटल का कम्पन अथवा लहर है जो धरातल के नीचे चट्टानों के लचीलेपन या गुरुत्वाकर्षण की समस्थिति में क्षणिक अव्यवस्था होने के कारण उत्पन्न होता है.

    ज्वालामुखी

    ज्वालामुखी भूपटल पर वह प्राकृतिक छेद या दरार है जिससे होकर पृथ्वी के अन्दर का पिघला पदार्थ, गैस या भाप, राख इत्यादि बाहर निकलते हैं. पृथ्वी के अन्दर का पिघला पदार्थ, जो ज्वालामुखी से बाहर निकलता है, भूराल या लावा (Lava) कहलाता है. यह बहुत ही गर्म और लाल रंग का होता है. लावा जमकर ठोस और काला हो जाता है जो बाद में जाकर ज्वालामुखी-चट्टान के नाम से जाना जाता है. लावा में इतनी अधिक गैस होती है

    ज्वालामुखी के प्रकार

    उदगार अवधि के अनुसार ज्वालामुखी तीन प्रकार के होते हैं.

    1-सक्रिय ज्वालामुखी

    2-प्रसुप्त ज्वालामुखी

    3-मृत या शांत ज्वालामुखी

    सक्रिय ज्वालामुखी (Active Volcano) इसमें अक्सर उदगार होता हैं. वर्तमान समय में विश्व में सक्रिय ज्वालामुखियों की संख्या 500 हैं. इनमे प्रमुख हैं – इटली का एटना तथा स्ट्राम्बोली. मैक्सिको (उत्तरी अमेरिका) में स्थित कोलिमा ज्वालामुखी बहुत ही सक्रिय ज्वालामुखी हिं. इसमें 40 बार से अधिक उदगार हो चुका हैं.

    प्रसुप्त ज्वालामुखी( Dormant Volcano) जिसमें निकट अतीत में उदगार नही हुआ हैं, लेकिन इसमें कभी भी उदगार हो सकता हैं. इसके उदाहरण हैं –

  • विसुवियस (भूमध्य सागर)
  • क्राकाटोवा (सुंडा जलडमरूमध्य)
  • फ्यूजीयामा (जापान)
  • मेयन (फिलिपीन्स)
  • शांत ज्वालामुखी (Extinct Volcano) ऐसा ज्वालामुखी जिसमें एतिहासिक काल से कोई उदगार नही हुआ है और जिसमें पुनः उदगार होने की संभावना न हो. इसके उदाहरण हैं –

  • कोह सुल्तान एवं देमवन्द (ईरान)
  • पोपा (म्यांमार)
  • किलिमंजारो (अफ्रीका)
  • चिम्बराजो (दक्षिण अफ्रीका)
  • भारत के ज्वालामुखी (Volcano in India)

    भारत में कुछ ख़ास जगहों पर ज्वालामुखी विस्फोट देखने मिलता है.

  • बारेन आइलैंड : बारेन आइलैंड अंडमान सागर में स्थित है. यहाँ पर दक्षिण एशिया का एकमात्र सक्रिय ज्वाला मुखी देखने मिलता है. इसका पहला विस्फोट सन 1787 मे देखा गया था. उसके बाद ये ज्वालामुखी दस से भी अधिक बार प्रस्फुटित हो गया है. इसी साल 2017 के फ़रवरी के महीने में भी एक बार ये ज्वालामुखी सक्रिय हो उठा. इसकी ऊँचाई 353 मीटर की है.
  • नर्कांदम आइलैंड : ये भी अंडमान सागर में स्थित एक छोटा सा आइलैंड है, जिसकी ऊंचाई औसत समुद्री ताल से 710 मीटर है. इस आइलैंड के दक्षिणी पश्चिमी क्षेत्र में कुछ सक्रिय ज्वालामुखी पाए जाते है. इस आइलैंड का क्षेत्रफल 7.63 किमी है. इस पर स्थित ज्वालामुखी की लम्बाई 710 मीटर की थी.
  • डेक्कन ट्रैप्स : डेक्कन पठार पर स्थित यह प्रान्त ज्वालामुखी के लिए अनुकूल है. कई वर्षों पहले यहाँ पर ज्वालामुखी का विस्फोट देखा गया था.
  • बरतंग आइलैंड : इस आइलैंड पर ‘मड वोल्कानो’ पाया गया है. पिछली बार सन 2003 में इस पर ज्वालामुखी देखा गया था.
  • धिनोधर हिल्स : ये गुजरात में स्थित है. यहाँ मृत ज्वालामुखी पायी जाती है. इस मृत ज्वालामुखी की ऊंचाई 386 मीटर है.
  • दोषी हिल : ये हरियाणा में स्थित है. इस पर भी मृत ज्वालामुखी देखी गयी है, जिसकी ऊंचाई 540 मीटर की है.
  • ज्वालामुखी के बारे में रोचक जानकरियाँ

  • सक्रिय ज्वालामुखी अधिकांशतः “प्रशांत महासागर” के तटीय भाग में पाया जाता हैं. प्रशांत महासागर के परिमेखला को “अग्नि वलय” ( Fire ring of the pacific ) भी कहते हैं.
  • सबसे अधिक सक्रिय ज्वालामुखी अमेरिका एवं एशिया महाद्वीप के तटों पर स्थित हैं.
  • ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप में एक भी ज्वालामुखी नही हैं.
  • विश्व का सबसे ऊँचा ज्वालामुखी पर्वत “कोटापैक्सी” (इक्वेडोर) हैं, जिसकी ऊँचाई 19,613 फीट हैं.
  • विश्व की सबसे ऊँचाई पर स्थित सक्रिय ज्वालामुखी “ओजस डेल सालाडो” (6885मी.) एण्डीज पर्वतमाला में आर्जेन्टीना चिली देश के सीमा पर स्थित हैं.
  • विश्व की सबसे ऊँचाई पर स्थित शान्त ज्वालामुखी एकान्कागुआ (Aconcagua) एण्डीज पर्वतमाला पर ही स्थित हैं, जिसकी ऊँचाई 6960 मी. हैं.
  • स्ट्राम्बोली भूमध्य सागर में सिसली के उत्तर में लिपारी द्वीप पर अवस्थित हैं. इसमें सदा प्रज्वलित गैस निकला करती हैं, जिससे आस-पास का भाग प्रकाशित रहता हैं, इस कारण इस ज्वालामुखी को “भूमध्य सागर का प्रकाश स्तम्भ” कहते हैं.
  • गेसर (Geyser) बहुत से ज्वालमुखी क्षेत्रो में उदगार के समय दरारों तथा सूराखो से होकर जल तथा वाष्प कुछ अधिक ऊँचाई तक निकलने लगते हैं. इसे ही गेसर कहा जाता हैं.
  • वन

    एक क्षेत्र जहाँ वृक्षों का घनत्व अत्यधिक रहता है उसे वन कहते हैं।

    वनस्पति/वन के प्रकार

    उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन -ऐसे वन क्षेत्र हैं जो भूमध्य रेखा के दक्षिण या उत्तर में लगभग 28 डिग्री के भीतर पाए जाते हैं। ये एशिया, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, मध्य अमेरिका, और प्रशांत द्वीपों पर पाए जाते हैं। विश्व वन्यजीव निधि के बायोम वर्गीकरण के भीतर उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन को उष्णकटिबंधीय वर्षावन वन (या उष्णकटिबंधीय नम चौड़े पत्ते के वन) का एक प्रकार माना जाता है और उन्हें विषुवतीय सदाबहार तराई वन के रूप में भी निर्दिष्ट किया जा सकता है।

    उष्ण कटिबंधीय अर्द्ध पतझड़ वन -150 सेमी से कम वर्षा में होती है । साल, सागवान एवं बांस आदि उष्ण कटिबंधीय अर्द्ध पतझड़ वन में पाए जाते है?

    विषुवत रेखीय वन-वृक्ष और झड़ियों का मिश्रण । जैतून, कार्क तथा ओक इस वन के मुखी वृक्ष है ।

    टैगा वन - इनकी पतियाँ नुकीली होती है।

    टुण्ड्रा वन - टुण्ड्रा वन में उगने वाले वृक्षों की बढोत्तरी कम तापमान और अपेक्षाकृत छोटे मौसम के कारण प्रभावित होती है।

    पर्वतीय वन- इस प्रकार के वन उच्च स्थलाकृति वाले हिमालय क्षेत्र में पाए जाते हैं। इस प्रदेश में विभिन्न ऊचाईयों के अनुसार वनों की प्रजातियों में भी भिन्नता पाई जाती है। अधिक ऊँचाई वाले भागों में कोणधारी नुकीली पत्ती वाले वन पाए जाते हैं जो कि 17-18 मीटर से अधिक ऊँचे होते हैं।

    प्रमुख घास के मैदान -

    1. पम्पास - अर्जेंटीना।

    2. प्रेयरी - अमेरिका।

    3. वेल्ड - दक्षिण अफ्रीका।

    4. डाउन्स - आस्ट्रेलिया।

    5. केंटरबरी - न्यूजीलैंड।

    6. स्टेपी - ट्यूनेशिया।

    प्रमुख रेगिस्तान -

    1. सहारा - अफ्रीका।

    2. गोबी - मंगोलिया।

    3. कालाहारी - बोत्सवाना।

    4. तकलामकान - चीन।

    5. काराकुम - तुर्कमेनिस्तान।

    6. अटाकामा - चिली।

    7. थार - भारत व् पाकिस्तान।


     


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      अपवाह तंत्र Drainage system सामान्य परिचय (General Introduction) जब नदियों के जल का बहाव कुछ निश्चत जलमार्गों (वाहिकाओं) के माध्यम से होता है तो उसे नदियों का 'अपवाह' कहते हैं तथा इन वाहिकाओं के जाल को 'अपवाह तंत्र' कहते हैं। अपवाह तंत्र मुख्य नदी एवं उनकी सहायक नदियों का एक एकीकृत तंत्र होता है, जो सतह के जल को एकत्र कर उसे दिशा प्रदान करता है। एक नदी एवं उसकी सहायक नदियों द्वारा अपवाहित क्षेत्र को 'अपवाह द्रोणी' कहते हैं। एक नदी, विशिष्ट क्षेत्र से अपना जल बहाकर लाती है, जिसे जलग्रहण' क्षेत्र (Catehment Area) कहा जाता है। बड़ी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र को 'नदी द्रोणी' जबकि छोटी नदियों व नालों द्वारा अपवाहित क्षेत्र को 'जल-संभर' (Watershed) कहा जाता है। जल-संभर अथवा जल विभाजक एक अपवाह द्रोणी को दूसरे से अलग करने वाली सीमा है। नदियों का अपवाह प्रतिरूप (Drainage Pattern of Rivers) नदी के उद्गम स्थान से लेकर उसके मुहाने (मुख) तक नदी व उसकी सहायक नदियों द्वारा की गई रचना को ' अपवाह प्रतिरूप' कहते हैं। नदियों का अपवाह निम्नलिखित कारकों

    ऊर्जा संसाधन (Energy Resources)

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